Sunday 17 June 2012

शब्दों की नाव


शब्दों की नाव बना कर ....
कूद पड़ी हूँ
 अभिव्यक्ति के सागर में
भर लिया है
 भुजाओं में बल विचारों का......
पतवार है सम्वेदनाओं की .....
भावनाओं की लहरों के संग बहते बहते
अभी तो मिलना है
चिंतन मनन और
 ज्ञान की अनेकों तरंगों  से .......
जिनके आश्रय से
 एक एक पग बढ़ेगी मेरी नाव
और मैं पहुच जाऊँगी उस पार !!!
मेरे सपनों के गाँव में .....
जहाँ जोहते हैं बाट
सृजन के पाँखी......
अपने परों पर सहेजे हवाओं की सोंधी गंध
और जोहते हैं बाट
छंदों के वृक्ष
अपने पत्तों पर
 मुक्तक की बूँदें समेंटे ओस की  तरह
इन बूंदों से गुजर कर आएगी जब
प्राची की रश्मि.....
 रस और अलंकार के रंगों में नहाई तब ........
होगी सतरंगी भोर
मेरे सपनों के गाँव में
ममता


Wednesday 6 June 2012


उठा  तूलिका  चित्रकार  ने
 वर्तमान  का  चित्र  लिखा
समझ सको तो समझो मित्रों
दर्द  कौन  सा  वहाँ  दिखा

एक चित्र में  उच्च शिखर पर
 झूठ  पसर   कर  बैठा  था
सत्य  ठगा  सा एक कोने में
एकाकी   सा   बैठा   था
लालच  की  अंधी गलियों में
गुम   होता   ईमान   दिखा

एक चित्र में  एक भिखारिन
 बार  बार  तन  ढांक  रही
लेकिन  उम्र  बगावत  करके
चिथड़ों  मे  से   झाँक  रही
तार  तार  होता  नजरों  से
लज्जा  का  अभिमान दिखा

एक  चित्र  में  पावन सरिता
मलिन  पड़ी  थी  निर्बल सी
कभी  लबालब थी जो जल से
दिखी  आज  वो  मरुथल सी
कूल  कछार  पर्ण  वृक्षों का
मौन  रुदन  सा  गान दिखा

एक  चित्र  में  लोग बो  रहे
बीज   यहाँ   मीनारों    के
अंकुर  फूट  रहे  धरती   में
खिडकी   और  दीवारों   के
आवासों  की  बलिबेदी   पर
खेतों   का  बलिदान  दिखा

एक  चित्र  में आग पेट की
धू  धू  करके  धधक   रही
निर्धनता  उसके  चरणों  में
भूकी  प्यासी  सिसक   रही
प्रस्तर की प्रतिमा के सम्मुख
स्वर्ण रजत का  दान  दिखा

ममता