पन्द्रह मार्च १९६३
हाँ ..यही तो है ...
मेरा जन्म दिवस ....
पूरे उनंचास बसंत हो गए विदा ..
और् पचासवे ने दी है दस्तक !
बेटी को बिदा करके ......
बच्चों से अलग रह के ......
समय गुजारने के बहाने तलाशते ...
एकांत घर में एकाकीपन को झेलते .
रह रह के याद आता है बचपन |
इस पचासवे बसंत में ,
वे लम्हे जिनमें थी ...
माँ की डाट ,लाड प्यार ,रूठना ,मनाना ....
और पिता का वरदहस्त ....
चिंता ?
चिंता के लिए कोई स्थान ही नहीं |
अपनों के मजबूत हाथ ,
हर परेशानी को बीच में ही रोक लेते थे |
'' मैं हूँ न ''
भाई का स्नेह में पगा आश्वासन
याद आता है इस पचासवे बसंत में |
गोबर से लीपा आँगन ,
सामने बड़ा सा चबूतरा ....
और उसके बगल में खड़ा
वो बूढा नीम का पेड ......
हर घटना का साक्षी |
और जब फूलता तो ...
फूलों का ढेर लग जाता चबूतरे पर
फिर निम्बोली का टपकना .....
सामने वाली मोटी डाल के खोखले में
झांकते तोते के बच्चे ....
और उनकी पीली चोंच ..
सब याद आता है इस पचासवे बसंत में |
सामने खेतों की ओर जाता रास्ता ..
काँधे पर हल रखे आते जाते लोग ...
''जय राम जी की ''मनमोहक अभिवादन ..
बैल गाडी से अनाज का लाना ..
संयुक्त परिवार का सुख ...
पूरे गाँव को
एक परिवार मानने का जज्वा
सचमुच बहुत याद आता है पचासवे बसंत में
बैलों के गले में बंधी घंटियों का स्वर ...
गाय का रम्भाना ...
बछड़े का उछलना कूदना ...
थनों में उतरता दूध ...
और गाय का तन्मय हो के
बछड़े को चाटना ....
हलाकि बहुत दिन हुए गाँव छोड़े
पर लगता है
अभी कल् की ही तो बात है ..
सब कुछ याद आता है इस पचासवे बसंत में
वे हाथ जो दिया करते थे आशीर्वाद
अब नहीं हैं
तभी तो अब
,उनके होने का अर्थ समझ में आता है
अब जब ,
अपने कमरे में बैठती हूँ .तो
याद आती है वे सूनी आँखें |
जब माँ बिदा करती थी मुझे ....
ओझल होने तक ताकती रहती थी ....
अपलक मौन ......
आज बेटी को बिदा करने पर
समझ में आया उन आँखों का दर्द ...
इस पचासवे बसंत में
ममता
हाँ ..यही तो है ...
मेरा जन्म दिवस ....
पूरे उनंचास बसंत हो गए विदा ..
और् पचासवे ने दी है दस्तक !
बेटी को बिदा करके ......
बच्चों से अलग रह के ......
समय गुजारने के बहाने तलाशते ...
एकांत घर में एकाकीपन को झेलते .
रह रह के याद आता है बचपन |
इस पचासवे बसंत में ,
वे लम्हे जिनमें थी ...
माँ की डाट ,लाड प्यार ,रूठना ,मनाना ....
और पिता का वरदहस्त ....
चिंता ?
चिंता के लिए कोई स्थान ही नहीं |
अपनों के मजबूत हाथ ,
हर परेशानी को बीच में ही रोक लेते थे |
'' मैं हूँ न ''
भाई का स्नेह में पगा आश्वासन
याद आता है इस पचासवे बसंत में |
गोबर से लीपा आँगन ,
सामने बड़ा सा चबूतरा ....
और उसके बगल में खड़ा
वो बूढा नीम का पेड ......
हर घटना का साक्षी |
और जब फूलता तो ...
फूलों का ढेर लग जाता चबूतरे पर
फिर निम्बोली का टपकना .....
सामने वाली मोटी डाल के खोखले में
झांकते तोते के बच्चे ....
और उनकी पीली चोंच ..
सब याद आता है इस पचासवे बसंत में |
सामने खेतों की ओर जाता रास्ता ..
काँधे पर हल रखे आते जाते लोग ...
''जय राम जी की ''मनमोहक अभिवादन ..
बैल गाडी से अनाज का लाना ..
संयुक्त परिवार का सुख ...
पूरे गाँव को
एक परिवार मानने का जज्वा
सचमुच बहुत याद आता है पचासवे बसंत में
बैलों के गले में बंधी घंटियों का स्वर ...
गाय का रम्भाना ...
बछड़े का उछलना कूदना ...
थनों में उतरता दूध ...
और गाय का तन्मय हो के
बछड़े को चाटना ....
हलाकि बहुत दिन हुए गाँव छोड़े
पर लगता है
अभी कल् की ही तो बात है ..
सब कुछ याद आता है इस पचासवे बसंत में
वे हाथ जो दिया करते थे आशीर्वाद
अब नहीं हैं
तभी तो अब
,उनके होने का अर्थ समझ में आता है
अब जब ,
अपने कमरे में बैठती हूँ .तो
याद आती है वे सूनी आँखें |
जब माँ बिदा करती थी मुझे ....
ओझल होने तक ताकती रहती थी ....
अपलक मौन ......
आज बेटी को बिदा करने पर
समझ में आया उन आँखों का दर्द ...
इस पचासवे बसंत में
ममता