लिए गर्भ में भोर का अंकुर
रजनी से मिलने को आतुर
श्रम की लाली से आलोकित
सूर्य रश्मि पर आती संध्या
पल पल ढलती जाती संध्या
दीप जलें जब शिव आलय में
उठे नाद डमरू के स्वर में
वेद मन्त्र नभ में जब गूँजे
भक्ति भाव फैले कणकण में
तब प्रभु के पावन चरणों में
शीश झुकाए आती संध्या
स्वेद बिंदु को पौछ श्रमिक जब
अपने अपने घर को आते
कल् रब गान सुनाते पंछी
तरु की फुनगी पर आ जाते
तब पैरों में पहन के पायल
घुंगरू को छनकाती संध्या
जैसे कोई स्वप्न सुंदरी
उठा के घूँघट झाँक रही हो
अलसाई बोझिल अंखियों से
प्रीतम का मुख ताक रही हो
सराबोर हो प्रेम रंग में
दुलहन सी शर्माती संध्या
जीवन पथ के अंतिम क्षण में
एकाकी जब मन हो जाता
थकित जीर्ण काय को ढोता
स्मृतियों के दीप जलाता
चला चली की इस बेला में
निष्ठुर सी हो जाती संध्या
ममता