Tuesday 11 December 2012

रामायण


रामायण के
राम
यथार्थ या कल्पना ?
अनुत्तरित   प्रश्न ....
अयोध्या के अवशेष ,
रामसेतु ,
असंख्य गाथाएँ ......
अनेकों विवाद ....
पर
कल्पना हो या यथार्त
महत्व  तो भावना का है
शायद ....राम रहे हों ...या
न भी रहे हों ...
रावण भी रहा हो या ...न भी हो
पर सच तो ये है कि
राम और रावण
सिर्फ भावनाओं के नाम हैं
एक "सद भावना ''
दूसरी "दुर्भावना ''
जो आज तक
 विद्यमान है हर दिल में
कोई ग्रन्थ, उपदेश
नहीं कर सके अंत इसका
अब ये हमारी सोच पर निर्भर है
किसे हम पालें पोशें
और किसे
 कान पकड़ कर कर दें बाहर
राम रावण युद्ध
आज तक जारी है
हमारे दिलों में .....
कभी
 राम का पलड़ा भारी  होता है तो ,
कभी
रावण का भी !!!
आसान  नहीं है युद्ध विराम
बस इसी युद्ध में
 काम आती है "रामायण ''
जो समझाती  है मायने रामत्व के ..
करती है सहायता ...
 कान पकड कर,रावण को
 बाहर का  रास्ता दिखाने में
तो फिर
क्या फर्क पड़ता है इससे
कि  पात्र काल्पनिक हैं
या सजीव !!



Monday 3 December 2012

रिश्तों की जमींन


रिश्तों  की जमीन
सींची  जाती है जब
 प्रेम की  कोमल भावनाओं  से
जोती जाती है
अपनत्व के हल से
डाला जाता है बीज
विस्वास का
तब निश्चित ही
 फूटता है  अंकुर
अपार संभावनाओं का
पनपता है अटूट रिश्ता
नन्हे नन्हे  दो पत्ते
बन  जाते हैं  प्रतीक
अमर प्रेम के ....
लहलहाती है संबंधों की फसल
फिर वो रिश्ता  कोई  सा भी हो
खूब निभता है
पर आज की इस आपाधापी में
कितना मुश्किल है
निश्छल  प्रेम
अपत्व
भरोसा
हर चहरे पर  एक मुखोटा
फायदा  नुक्सान की तराजू पर तुलते रिश्ते
अपने स्वार्थ में लिप्त आदमी
भूल चूका है
निबाहना !!!
पर कभी जब
 हो जाता है सामना विपत्ति से
तब यही लोग
थामने लगते है रिश्तों की लाठी
गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं  ये
ढीट होते हैं
हमेशा ही जिम्मेदार ठहराते
औरों को
दरकते रिश्तों के लिए
और खुद हाथ झाड़ कर
दूर खड़े हो जाते
मासूम बन  कर

ममता

Saturday 27 October 2012

शब्द


 शब्द जो करते  हैं
आहत
रहते हैं महफूज ता उम्र
स्मृतियों के पिटारे में .........
ठुक जाते हैं
कील की तरह
मन की कोमल दीवार पर
और उन्हीं  कीलों  पर
टंग  जाती हैं
तार तार हुई भावनाएं
बेबस से हम
करते रहते हैं प्रयास
इन तारों को  जोड़ने का
छिपा कर दर्द
अलापने लगते हैं
फिर से नया राग
पर ...
मन के एक कोने में
 सिसकती रहती हैं
भावनाएं
सुप्त हो जाता है निनाद
रह जाते हैं केवल  शब्द
जो कर गए थे
  आहत

ममता

Friday 19 October 2012

कितने शातिर हैं हम


बना कर एक
प्रस्तर की प्रतिमा
पूजते हैं हम उसे ,
हो कर श्रद्धावनत
माँगते हैं वरदान
और वो,
भर देती है झोलियाँ आशीषों से
वो ,होती है
हमारी आराध्य कुलदेवी रक्षक ...........
झुकाते हैं शीश
हो जाते हैं तृप्त दर्शन मात्र से
लेकिन ,
जब वो धर कन्या का रूप
स्थापित होती है
गर्भ में
तब ,बड़ी निष्ठुरता से
खरोंच फेंकते हैं उसे
बाहर .........
कहीं कोई स्थान नहीं उसका
न मन में न घर में
और हम फिर से
मशगूल हो जाते हैं
श्रद्धा के अभिनय में
कितने शातिर हैं हम !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

Wednesday 10 October 2012

तर्पण


जो  इस   दुनियाँ   में  नहीं  हैं  अब ,
उनका    हम   करते    हैं  तर्पण
लेकिन    जो घर  में   जीवित  हैं ,
एकाकी   पन     से   पीड़ित   हैं
उनका   कोई    सम्मान     नहीं ,
रखता   अब   कोई   ध्यान  नहीं
अभिशप्त   सा   जीवन   जीते  हैं ,
वे  सदा    ही   गुम   सुम रहते हैं
उनके   अपने   ही  कभी   कभी,
 घर  से   बेघर   भी  करते  हैं
वृधाश्रम    की   दीवारों   में  ,
 ऐसे    ही   जीवन   पलते  हैं
फिर   दुनियाँ   दारी  की  खातिर ,
करते   हैं    हम   उनका  तर्पण
आशीषों    से   झोली   भर   के ,
हल्का   कर   लेते  अपना   मन
बस ...इतना   सा   हम  कर लेते ,
जीते   जी   उनको   सुख   देते|
सम्मान   उन्हें   करते    अर्पण ,
सच्चा    तब    हो  जाता  तर्पण |

Sunday 23 September 2012

काया

काया ....
न जाने  कितने
उद्दाम  आवेगों  को  झेलती ..


ढ़ोती...
     आभिमान   के   बोझ  को
नाचती ..
अहम्  के  इशारों   पर ..
जरिया   बनती .....
प्रदर्शन    का
साधन  बनती ...
उपभोग  का


अंततः .....

हो  जाती  जर्जर
 लेकि न   मन   लालाइत   रहता
इसे   पुनर्जीवित   करने  में

बसीभूत   हो    काया   के
कभी    न करता   दर्शन
  आत्मा  का
वो   सदा   ही   रहती
उपेक्षित !!!!!

पता  ही    न   चला
 कब  इसकी   साँसें  टूटीं
 कब हो गया अंत ?
और  मन  आज भी ....
आत्मा को मार कर

सजा  धजा  कर  काया  को
जीता  है  शान  से



ममता 

Sunday 12 August 2012

पन्द्रह अगस्त


aपन्द्रह अगस्त की रात को ,
वो हाथ में  झंडा लिए
थी राजपथ  पर घूमती |

आँखों में थी बस याचना ,
और घाव छाती पर लिए ,
हर द्वार  पर वो ढूकती |

शायद कोई मिल जाए......
जो घाव पर मरहम धरे ,
अपने हिया में सोचती |

हर द्वार उससे पूछता ,
तुम कौन हो ?
क्यों आई हो?
इस राजपथ के द्वार पर |

अवरुद्ध उसके कंठ से ,
पीड़ा निकल कर झर पड़ी
फिर डगमगाए थे कदम ,
और वो जमीं पर गिर पड़ी |

तब बोली वो कराह के
तुम लाल कैसे हो मेरे ,
मुझ को नहीं पहचानते |

अन्याय से घायल हुई ,
माँ भारती हूँ आपकी
 क्यों हाथ भी ना थामते  |

फिर हाथ अपना टेक कर
पीड़ा समेटे घाव की ,
उठने लगी वो भारती |

इतिहास में अंकित
 सुतों को याद कर ,
रोने लगी वो भारती |

फिर हाथ फैला कर ,
दुआ करने लगी
 आकाश से |

तू शाक्षी है समय का ,
तू शाक्षी इतिहास का,
 तू शाक्षी बलिदान की  हर बूंद का |

उठ ,जाग फिर से
 थाम ले शमशीर  कर में ,
औ काट दे अन्याय का सर

तू काट दे टुकड़ों में
भ्रष्टाचार को, अपराध को ,
औ स्वार्थ को

वो देर तक रोती रही
आँसू से मुख धोती रही ,
पर आँख दिल्ली की भीगी नहीं |

और खून दिल्ली का खौला नहीं
आवाज दिल्ली तक पहुंची नहीं
माँ भारती के रुदन की |

तब एक बच्चे ने
पकड़ कर हाथ ,
समझाया उसे |

क्यों ब्यर्थ में रोती हो माँ ?
भटक कर रास्ता
आ गयी हो कहाँ ?

ये दिल्ली ......
अब नहीं इतिहास वाले वीरों की
ये हो चुकी पाषाण अब तो |

तो अब ये ...
बोल ,सुन  सकती नहीं
जाओ माँ ,
फिर से सींचो कोख अपनी
फिर से डालो बीज नन्हे |
या ....
हो सके तो ,
प्राण फिर से फूंक दो
पाषण  में |

ममता बाजपेई



Sunday 17 June 2012

शब्दों की नाव


शब्दों की नाव बना कर ....
कूद पड़ी हूँ
 अभिव्यक्ति के सागर में
भर लिया है
 भुजाओं में बल विचारों का......
पतवार है सम्वेदनाओं की .....
भावनाओं की लहरों के संग बहते बहते
अभी तो मिलना है
चिंतन मनन और
 ज्ञान की अनेकों तरंगों  से .......
जिनके आश्रय से
 एक एक पग बढ़ेगी मेरी नाव
और मैं पहुच जाऊँगी उस पार !!!
मेरे सपनों के गाँव में .....
जहाँ जोहते हैं बाट
सृजन के पाँखी......
अपने परों पर सहेजे हवाओं की सोंधी गंध
और जोहते हैं बाट
छंदों के वृक्ष
अपने पत्तों पर
 मुक्तक की बूँदें समेंटे ओस की  तरह
इन बूंदों से गुजर कर आएगी जब
प्राची की रश्मि.....
 रस और अलंकार के रंगों में नहाई तब ........
होगी सतरंगी भोर
मेरे सपनों के गाँव में
ममता


Wednesday 6 June 2012


उठा  तूलिका  चित्रकार  ने
 वर्तमान  का  चित्र  लिखा
समझ सको तो समझो मित्रों
दर्द  कौन  सा  वहाँ  दिखा

एक चित्र में  उच्च शिखर पर
 झूठ  पसर   कर  बैठा  था
सत्य  ठगा  सा एक कोने में
एकाकी   सा   बैठा   था
लालच  की  अंधी गलियों में
गुम   होता   ईमान   दिखा

एक चित्र में  एक भिखारिन
 बार  बार  तन  ढांक  रही
लेकिन  उम्र  बगावत  करके
चिथड़ों  मे  से   झाँक  रही
तार  तार  होता  नजरों  से
लज्जा  का  अभिमान दिखा

एक  चित्र  में  पावन सरिता
मलिन  पड़ी  थी  निर्बल सी
कभी  लबालब थी जो जल से
दिखी  आज  वो  मरुथल सी
कूल  कछार  पर्ण  वृक्षों का
मौन  रुदन  सा  गान दिखा

एक  चित्र  में  लोग बो  रहे
बीज   यहाँ   मीनारों    के
अंकुर  फूट  रहे  धरती   में
खिडकी   और  दीवारों   के
आवासों  की  बलिबेदी   पर
खेतों   का  बलिदान  दिखा

एक  चित्र  में आग पेट की
धू  धू  करके  धधक   रही
निर्धनता  उसके  चरणों  में
भूकी  प्यासी  सिसक   रही
प्रस्तर की प्रतिमा के सम्मुख
स्वर्ण रजत का  दान  दिखा

ममता

Tuesday 10 April 2012

गीली ओस की तरह


कुछ भावनाएँ
जोड़  कर ,
भर   लिया   मन   का  आँगन ,
प्यारे   प्यारे  शब्दों  से  |
जिनके   मायने  मैंने   गढे  थे  ,
अपनी खुशी के लिए |
उन्हें  पढ़ पढ़  कर
 खूब झूमीं  नाची |
जी भर  कर मनाया  उत्सब |

कुछ  शब्दों को
 '' वो ''
रख गया था  मेरे
 मन के द्वार पर ,
मखमली  लिबाश    मे
  लपेट  कर |
और  मैंने  जी  लिए  ,
जीवन  के  कुछ  पल ,
उनके   सहारे |
पर  तोड़   कर जब ,
मखमली  आवरण
कुछ  शब्द  निकले ,
 तीखे   नश्तर   से
जा  लगे
 सीधे  दिल  पर
और    बह  निकली धारा ,
आँखों   के
  कटोरों   से
नहला   दिया
 गालों  को
सिमट   गईं  
भावनाएँ
 उँगलियों   के  पोरों   पर
गीली ओस की तरह |

ममता


Friday 16 March 2012

पचासवा बसंत

पन्द्रह  मार्च १९६३
हाँ ..यही  तो है ...
मेरा  जन्म  दिवस ....
पूरे   उनंचास  बसंत हो गए विदा ..
और्   पचासवे  ने दी है दस्तक !
बेटी  को  बिदा  करके ......
बच्चों  से  अलग  रह के ......
समय  गुजारने  के  बहाने  तलाशते ...
एकांत  घर  में  एकाकीपन  को झेलते .
रह  रह  के  याद  आता  है बचपन |
इस  पचासवे बसंत में ,
वे  लम्हे   जिनमें  थी ...
माँ  की  डाट  ,लाड  प्यार ,रूठना ,मनाना ....
और  पिता   का  वरदहस्त ....

चिंता ?
चिंता  के  लिए   कोई  स्थान  ही  नहीं |
अपनों  के  मजबूत  हाथ ,
हर परेशानी  को बीच में ही रोक लेते थे |
 ''  मैं हूँ न ''
भाई  का  स्नेह  में  पगा  आश्वासन
याद  आता  है  इस  पचासवे  बसंत में |
गोबर से लीपा आँगन ,
सामने बड़ा सा चबूतरा ....
और   उसके  बगल  में  खड़ा
 वो  बूढा  नीम  का पेड ......
हर  घटना  का साक्षी |
और जब फूलता तो ...
फूलों  का  ढेर  लग जाता चबूतरे पर
फिर निम्बोली का टपकना .....
सामने वाली मोटी डाल  के खोखले में 
 झांकते  तोते  के  बच्चे ....
और  उनकी  पीली  चोंच ..
सब  याद  आता  है  इस  पचासवे  बसंत में |
सामने  खेतों  की  ओर  जाता रास्ता ..
काँधे  पर  हल  रखे  आते  जाते  लोग ...
 ''जय राम जी की ''मनमोहक अभिवादन ..
बैल गाडी से अनाज  का लाना ..
संयुक्त परिवार का सुख ...
पूरे गाँव  को
 एक  परिवार  मानने  का जज्वा
सचमुच बहुत याद आता है पचासवे बसंत में
बैलों  के गले में बंधी  घंटियों  का स्वर ...
गाय का  रम्भाना ...
बछड़े का उछलना  कूदना ...
थनों में  उतरता दूध ...
और गाय  का तन्मय  हो  के
 बछड़े  को  चाटना ....
हलाकि  बहुत  दिन  हुए  गाँव  छोड़े
पर लगता है
 अभी कल् की ही तो बात है ..
सब कुछ याद आता है इस पचासवे बसंत में
वे हाथ  जो दिया करते थे आशीर्वाद
अब नहीं हैं
तभी  तो  अब
 ,उनके  होने  का  अर्थ  समझ  में आता  है
अब  जब ,
 अपने  कमरे  में  बैठती  हूँ .तो
याद  आती  है वे सूनी आँखें  |
जब  माँ  बिदा  करती  थी  मुझे ....
ओझल होने तक ताकती रहती थी ....
अपलक मौन ......
आज बेटी को बिदा करने पर
 समझ में आया उन आँखों का दर्द ...
इस पचासवे बसंत में

ममता





Thursday 8 March 2012

फाग


रंग  बिरंगे  रंग  उड़   रहे
फाग चल  रही  संसद  में |
होली  की  इन  बौछारों  से
सराबोर  सब  संसद  में ......रंग बिरंगे रंग ......

कुछ हुरियारे  कुछ हुरियारिन
मिलजुल  खेल   रहे   होली |
अलग अलग परिधान है उनके
अलग  अलग  उनकी  बोली |
अपने  अपने  हुनर  दिखावें
एक  दूजे  को   संसद   में| ..रंग बिररंगे रंग ......

कुछ  हुरियारे  भूके  प्यासे
कुर्सी   से   चिपके   जावें |
सारा ध्यान  लगा  खानें में
पेट  नहीं   पर   भर  पावें  |
भारत  का  ईमान  खा गए
बैठे    बैठे     संसद   में |..रंग बिरंगे रंग ....

इक   हुरियारिन   गोरीनारी
गुमसुम   सी   देखें  बैठी |
पहनावा   देसी   साडी   है
लेकिन   तन   है  परदेसी |
डोर  थाम  के  नाच नचावे
कठपुतली  सा  संसद   में  |रंग बिरंगे रंग ....

इक  हुरियारे  पगड़ी   वाले
मंद    मंद   से   मुस्कावें |
चाहे  जितना   रंग  लगाओ
कुछ  भी  बोल  नहीं  पावें |
छोटो  छोटी  बात  पूछ रहे
मैडम जी  से  व  संसद  में |रंग बिरंगे  रंग ...

इक   हुरियारे   प्रेम  पुजारी
दिखे   प्रेम   रंग  में   डूबे |
तन   से  तो  संसद  में  बैठे
मन   में   चलते   मनसूबे |
लाज  शर्म की तोड़ के सीमा
फ़िल्म   देखते   संसद   में |रंग बिरंगे रंग ....

इक हुरियारिन श्याम सलोनी
 हाथी   पर   बैठी    आवें |
चोराहे  को  देख   यकायक
प्रतिमा   बन कर  सज जावें |
एक अकेली  सब  पर  भारी
 अपने  घर  की  सासद में | रंग बिरंगे रंग ...

कुछ  हुरियारे  जादू   वाले
करतब   कर  के  दिखलावें
कभी  एक  पाले  में  दीखें
झट  दूजे  में   सज  जावें
अदला बदली दल की कर रहे
खेल  खेल  में  संसद   में
रंग  बिरंगे   रंग   उड़  रहे
फाग  चल  रही  संसद में






Sunday 26 February 2012

संध्या

लिए  गर्भ में भोर का अंकुर 
रजनी से मिलने को आतुर 
श्रम की लाली से आलोकित 
सूर्य  रश्मि पर आती संध्या
पल  पल ढलती जाती संध्या

दीप जलें जब शिव आलय में
उठे     नाद  डमरू के  स्वर में 
वेद  मन्त्र  नभ में जब गूँजे 
भक्ति भाव फैले  कणकण में 
तब  प्रभु के पावन चरणों में 
शीश    झुकाए  आती संध्या  

स्वेद बिंदु को पौछ  श्रमिक जब
 अपने   अपने   घर   को   आते  
कल्  रब   गान   सुनाते    पंछी  
तरु   की  फुनगी  पर  आ जाते 
तब   पैरों  में  पहन  के  पायल   
घुंगरू   को  छनकाती  संध्या  
  
जैसे    कोई     स्वप्न     सुंदरी    
उठा   के  घूँघट  झाँक  रही  हो    
अलसाई    बोझिल  अंखियों से     
प्रीतम   का  मुख  ताक रही हो   
सराबोर    हो    प्रेम   रंग    में     
 दुलहन    सी   शर्माती   संध्या    

जीवन  पथ  के  अंतिम  क्षण  में   
एकाकी   जब   मन   हो   जाता     
थकित    जीर्ण  काय   को  ढोता      
स्मृतियों    के     दीप   जलाता       
 चला   चली   की   इस  बेला में      
निष्ठुर   सी   हो   जाती  संध्या 

ममता                                   




Thursday 23 February 2012

जब भोर हुई





जब   भोर    हुई
 सूरज    निकला ,
नभ    मे  फैली
  वो    अरुणाई  |
टेसू   महके ,
,चिडियाँ  चहकें ,
धरती  पर  छाई  तरुनाई |

सर  पर  गागर   ले,
 जल   भरने |
चल   पड़ी  गुजरिया ,
बल   खाती |
ये   शीतल  मंद
पवन  बहती   ,
और   डाल  डाल
 को छू जाती

लो   चाक   चला   ,
कच्ची   मिटटी
लिपटी  कुम्हार   के
हाथों     मे |
आकार  मिला, 
बन  गयी   दिया ,
जलने को
 काली रातों मे |

काँधे   पर  हल
 लेकर  किसान   ,
बैलों    के   बंधन
खोल   रहा  |
बज   रहीं  घंटियाँ
छनन    छनन ,
स्वर  गलियारे   मे
डोल रहा  |

सरसों   की   कलियाँ
झूम  रहीं  ,
पीले   रंग  की
 चादर  ओढ़े |
भवरों की गुनगुन
 स्वर लहरी ,
कानों    मे मीठा  रस  घोले |

सूरज की परछाई  जल मे ,
रंग झिलमिल  झिल मिल
घोल   रही |
सतरंगी  किरने   कानों  मे ,
कुछ  गुपचुप   गुपचुप
बोल   रहीं|

तुम  भाप  बनो
और   उड़  जाओ ,
पहुचो  नभ   की
ऊंचाई    पर  |

फिर  बादल  की
 बौछार  लिए ,
छम   से   बरसो
इस  धरती  पर |

नदियों   मे पानी
तुम  भर दो |
इस   धारा   को
धानी  तुम  कर  दो |
धीरे धीरे  लाओ बसंत,
ये  सुबह  सुहानी
तुम कर दो |

ममता

Wednesday 25 January 2012

प्रजा तंत्र

मैं   पूछ  रही  दिल्ली  तुझ से,                  गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ
 ये  प्रजा  तंत्र  अब  चला  कहाँ ?  

सच्चाई   पर   हैं   सौ   पहरे
बेईमानी का  कोई  जिक्र  नहीं |
पल  रहा  ह्रदय  में  भ्रष्ट  तंत्र ,
अपनों   की   कोई  फिक्र  नहीं |

बस फिक्र सदा है निज हित की ,
इतिहास  घिनोना  रचा    यहाँ |
मैं  पूछ  रही  दिल्ली    तुझसे ,
ये प्रजा तंत्र  अब चला   कहाँ ?

जिस   सिहासन  पर  बैठे हो
  ये   शायद   तुमको  याद  नहीं |
ये  ताज   हमीं  ने  पहनाया
वर्ना  कोई    औकात    नहीं |

पर  रुको  तनिक  ठहरो  देखो ,
सब पोल  तुम्हारी  खुली  यहाँ |
मैं  पूछ  रही  दिल्ली  तुझ से ,
ये  प्रजा  तंत्र  अब चला  कहाँ ?

 पहले  शब्दों   के  हेर   फेर ,
फिर  सम्मोहन  के  वादे   हैं  |
पर  तुमको सारा  जग    जाने ,
कैसे     नापाक   इरादे   हैं |

हर  बात   तुम्हारी   घातों  की,
छल छिद्र  कपट सब पला  यहाँ |
मैं  पूछ  रही   दिल्ली   तुझसे ,
ये प्रजा  तंत्र  अब  चला   कहाँ ?

         ममता  बाजपेई



Saturday 21 January 2012

जीवन है तो चिंताएं हैं

जीवन   है    तो    चिंताएं   हैं ,
ये  सिक्के   के   दोनों    पहलू |
तुम   कहो   तुम्हारी     चिंताएं
अपनी   चिंताएं   मैं   कह    लूँ |

एक   दूजे   को   संबल  दे  दें ,
हौसला    बढ़ाएं    हम   अपना |
सह सको  व्यथा  तुम   जीवन की
अपनी   पीडाये   मैं   सह   लूँ |

मन   हल्का  कर लें  कह सुन कर
कुछ  भार  हिया  का  कम  तो हो|
 उँगली    थामे    उम्मीदों    की ,
पगडण्डी   एक   नयी   गह    लूँ |

कुछ    कड़वी   तीखी      बोछारें
कुछ    खारे    पानी   की    बूंदे |
मिल  एक  लहर    सी बन   जाऊं
फिर  लहरों   के  संग  संग  बह लूँ



Wednesday 11 January 2012

वे सब के सब

उन बुजुर्गों का दर्द जो अपने बच्चों के छोड़
कर जाने के बाद एकाकी जीवन जी रहे हैं




वे     सब   के    सब , जो   दिल   के   करीब थे ,
एक     एक     कर    छोड़    के   जाते     रहे |

और    हम    दिल    में    छुपाये   दर्द    सारे ,
बेबजह     से    यूँ       ही       मुस्काते    रहे

वक्त     ने    लिख   दी  जुदाई    की    घडी ,|
ख्वाब     मन    में    कुलबुलाते    ही     रहे |

  शब्द    ठिठके     से    जुबां   लाचार   सी ,
सारे    खारे     घूंट       पी     जाते         रहे  |

शर्त  या   कोई    परीक्षा  प्यार में  होती नहीं ,
और  वो   बस   प्यार    मेरा   आजमाते  रहे |

जब    अकेले     बैठ    कर    सोचा     किये ,
याद    वे    बिछड़े     सभी     आते       रहे   |

यूँ किसी  की  याद  में जीना  नहीं  आसान है ,
हम  जिए हैं  और अपने  जख्म  सहलाते रहे |


Saturday 7 January 2012

चुनाव चिन्ह

    बीते वर्ष  २०११  में जब बड़े बड़े घोटाले उजागर हुए तो समाचारों मे मैंने उमर अब्द्ल्लाह का बयान सुना ,वे भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ बोलते हुए कह रहे थे कि जेल से निकलने के बाद  सारे   भ्रष्ट  नेता यदि अपनी अलग पार्टी बना लें तो सोचिये  ये अपनी पार्टी का क्या  '' चुनाव चिन्ह ''  रखेंगे    बस  मैंने इसी  विषय ,पर एक व्यंग लिखा है |



तिहाड से  निकले हुए
 नेताओं ने मिल कर ,
बनाई  एक पार्टी |

क्या हो   ''चुनाव चिन्ह '''
इस विषय पर चर्चा  के लिए ,
बुलाई गोष्ठी |


ऐसे  चिन्ह  की
 थी जरुरत ,
जिस पर सब हों एकमत |

सुझाव थे  बहुत  सारे ,
परेसान  थे
 बेचारे  |

तभी....एक भाई बोले ,
कैसा  हो  ? यदि चिन्ह हो ,
 '' नोटों  का  बण्डल ''

बहन जी बोलीं न ..न ..न
इससे तो अच्छा है ...
'' विमान से लटकी सैंडिल ''

 या .......फिर 
.''..नोटों की माला ''
नहीं...तो...फिर ..
 ''किशान के मुह पर ताला ''


तभी   धीरे से फुसफुसाई ,
एक और बहनझी ,
इतना भी बुरा नहीं है
 ''' २ इस्पेक्त्र्म  जी ''

एक भाई ने ,
सहलाई  अपनी दाढ़ी,
दिखाई अपनी हेल्थ |

उनका  सुझाव था ,
कैसा रहेगा ?
  ''कॉमन वेल्थ '' |

तभी...एक पुराने नेता ,
उठ कर आये ,
और बिहारी मे बतियाए |

कहने ...लगे  ,चुनाव.. .. चिन्ह..का
  कौनों फिकर नहीं है |
हमरे प्...आ ..स 
सुझाव  कई हैं |

वो क्या कहते हैं ?
  ''चारा  का गठरी ''
'' रेल का पटरी ''
 ''बच्चों का फौज ''
नहीं तो फिर ,
  ''तबेला में मौज ''

तभी ..एक ,
..दक्षिण भारतीय नेता चिल्लाये !!!!!!
उन्होंने   बिलकुल
 नए नाम सुझाए  जैसे ... कि .

 ''धसकती  हुई  खादान ''
     ''महलनुमा मकान ''
''सोने का सिहासन ''
या फिर ,
''सोने के बासन ''  (बर्तन )

कोने में बैठे एक,
 कानून  के जानकार नेता फुफकारे !!!!!!!
और उन्होंने  रिजेक्ट  कर दिए,
सुझाव  सारे !!!!!!!!!!!!!!!!!

कहने लगे ,
अरे !!!  अभी हम इतने भी नहीं हैं लाचार ,
सीधे सीधे रखो ना ''भ्रष्टाचार '' |

और यू . पी .
ऍम .पी .
दिल्ली
बिहार
मद्रास
किसी का ..कोई विरोध ,
नहीं था खास , सो 
भ्रष्टाचार  के नाम पर
ध्वनिमत  से प्रस्ताव हो गया पास !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तभी ,
धीरे  से  जनता की आवाज  आई ,
उसने भी ,
 अपनी राय बताई |
न हाथी , न पंजा न फूल  न रोटी,
अरे ........बहुत हो ...गया
अभी भी वक्त है
सुधर जाओ ...और 
चुनाव  चिन्ह  ले लो '''सफेद टोपी ''

Monday 2 January 2012

सागर मे भटकी कश्ती

             सागर में भटकी सी कश्ती ,
            जा लगे किसी भी इक तट पर ,
           बस .....ऐसा  ही है ये जीवन!

             कब कहाँ कौन सा मिलेगा तट ,
              ये नहीं हमारे हातों मे \
             जो मिल जाए सो मिलजाए ,
            बस परमेश्वर के हातों में |
             हम अपनी  उर्वर साँसों से ,
            फिर महकाते हैं उस तट को |
            इक नन्हा  बीज लिए कर में ,
              जीवन  देते पूरे  बट को |
          अब इसी तले हम बस जाते ,
            रोते  धोते   हँसते   गाते |
            सपने   बुनते  बातें  गुनते ,
            अपने  तेरे  नाते     चुनते |
           बस यही ठाँव फिर बन  जाता ,
            ये तट अपना  घर  कहलाता |
              पर प्रश्न  सदा ही मन  में  हैं

           यदि....तट हम स्वयं  कभी  चुनते ?
             तो बात और ही कुछ होती |
             हम चुनते सारे सपनों को .......
               हम चुनते सारे अपनों को .......
      

             क्यों सहते कटने  की पीड़ा ...
              हम रहते सबसे मिले जुले ...
             ...
              पर क्यों कटने  की रीति बनी ?
             इस घर से कट के उस घर में .....
              क्यों जाने की है मज़बूरी .....
             क्या ये संभव है नहीं कभी ?
               हम जुड़ते  बस जुड़ते जाते ....
              जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
               बट वृक्ष  बड़ा सा बन जाते .....

ममता